ये उस समय की बात है जब भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ और वे निर्वाण को उपलब्ध हुए। ऐसे परम आनंद और परमशांति प्राप्त हुई थी अब जिसका न तो कोई अंत है और विराम। निरंतर नदी की भांति धाराप्रवाह उस प्रवाह को प्रवाहित किये जाती है, बल्कि उस छोटी से देह में समुन्द्र ही उमड़ आया था जो अब कभी नहीं जायेगा,क्यूंकि वह वापस जाने के लिए आया ही नहीं था। ऐसी मौज, ऐसी मस्ती, ऐसी आंधी पहले कभी नहीं छायी थी।
ऐसा हुआ की समय ही नहीं बचा उनके पास अपनी सुध- बुध समहालने का, जो होना था- हो रहा था; एक प्रकार से कई जन्मों के लोकों को पार कर वे लोकातीत अवस्था के समान, बरसते बादलों के पार अपने विशुद्ध रूप में धम्म के शिखर पर प्रकाशित हो रहे थे।
देवता दंडमस्तक हो रहे थे, बधाई दे रहे थे। असुर प्रेम और श्रद्धा से विभोर होकर उत्सव मना रहे थे। मानवता पुल्लकित हो उठी थी की चलो कोई तो पहुंचा उस द्वार के पार, जिसकी सम्भावना अत्यंत विरल है। ऐसे में देवता, असुर, गन्धर्व और इस लोक के सभी अस्तित्व गौतम बुद्ध को नमन कर रहे थे और फूलों की वर्षा हो रही थी।
ये मानवता के लिए अत्यंत शुभ घडी थी, जब मानव सही धर्म (सद्धम्म) को खो चूका था, जहाँ धर्म के नाम पार उसका शोषण हो रहा था। धर्म की कई दुकानें चल रही थीं जो कर्मकांडों के जरिये मनुष्य की चेतना को गुलामी की ज़ंजीरो में गुलाम बनाये हुए थीं। मनुष्य जैसे लगभग - लगभग मौलिक विचार करने की अपनी स्वतंत्रता या खो चूका था या अज्ञान में गलत मार्ग पर चलने को मजबूर था। ऐसे में बुद्ध जागे और ऐसे जागे की फिर कोई ऐसा नहीं जागा - न इससे पहले, न इसके बाद।
सारनाथ आगमन
१. धम्मोपदेश का निश्चय कर चुकने के अनन्तर बुद्ध ने अपने आप से प्रश्न किया कि मैं सर्व प्रथम किसे धम्मोपदेश दूँ ? उन्हे सब से पहले आलार-कालाम का ख्याल आया जो बुद्ध की सम्मति में विद्वान् था, बुद्धिमान था, समझदार था और काफी निर्मल था | बुद्ध ने सोचा यह कैसा हो, यदि मै सर्वप्रथम उसे ही धम्मोपदेश करू? लेकिन बुद्ध को पता लगा कि आलार-कालाम की मृत्यु हो चुकी है |
२. तब उन्होंने उद्दक रामपुत्त को भी उपदेश देने का विचार किया | किन्तु उसका भी शरीरान्त हो चुका था|
३. तब उन्हे अपने उन पाँच साथियों का ध्यान आया जो निरञ्जना नदी के तट पर उनकी सेवा में थे, और जो सिद्धार्थ गौतम के तपस्या और काय-क्लेश का पथ त्याग देने पर असन्तुष्ट हो उन्हें छोड़ कर चले गये थे |
४. उन्होंने सोचा “उन्होंने मेरे लिये बहुत किया, मेरी बडी सेवा की, मेरे लिये बहुत कष्ट उठाया । कैसा हो यदि मैं उन्हें ही सर्वप्रथम धम्म का उपदेश दूँ ?”
५. उन्होनें उनके ठोर-ठिकाने का पता लगाया | जब उन्हें पता लगा कि वे वाराणसी (सारनाथ ) के इसिपतन के मृगदाय में रहते हैं, तो बुद्ध उधर ही चल दिए |
६. उन पांचों ने जब बुद्ध को आते देखा तो आपस में तय किया कि बुद्ध का स्वागत नहीं करेंगे | उनमें से एक बोला, “मित्रो, वह श्रमण गौतम चला आ रहा है, जो पथ-भ्रष्ट हो गया है, जिस ने तपस्या का मार्ग त्याग आराम-तलबी और कामभोग का पंथ अपना लिया है | वह पापी है|
इसलिये हमें न उसका स्वागत करना चाहिये न उसके सम्मान में उठ कर खड़ा होना चाहिये | न उसका पात्र और चीवर ग्रहण करना चाहिये | हम उसके लिये एक आसन रख देते हैं, इच्छा होगी तो उस पर बैठ जायेगा |“ वे सब सहमत थे |
७. लेकिन जब बुद्ध समीप पहुंचे तो वे पांचों परिव्राजक अपने संकल्प पर दृढ़ न रह सके । बुद्ध के व्यक्तित्व ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे सभी अपने आसन से उठ खड़े हुए | एक ने बुद्ध का पात्र लिया, एक ने चीवर लिया, एक ने आसन बिछाया और दूसरा पांव धोने के लिये पानी ले आया |
८. यह सचमुच एक अप्रिय अतिथि का असाधारण स्वागत था |
९. इस प्रकार जो उपेक्षावान थे, श्रद्धावान बन गये |
धम्मचक्र प्रवर्तन
१. कुशल-क्षेम की बातचीत हो चुकने के बाद परिव्राजकों ने बुद्ध से प्रश्न किया -- “क्या आप अब भी तपश्चर्य्या तथा काय-क्लेश में विश्वास रखते है?”
२. बुद्ध ने कहा -- दो सिरे की बातें हैं , दोनो किनारों की -एक तो काम-भोग का जीवन और दूसरा काय-क्लेश का जीवन |
३. एक का कहना है, खाओ पीयो मौज उडाओ क्योंकि कल तो मरना ही है | दूसरे का कहना है तमाम वासनाओं का मूलोच्छेद कर दो क्योकि वे पुनर्जन्म का कारण है | उन्होंने दोनों को आदमी की शान के योग्य नहीं माना |
४. वे मध्यम-मार्ग को मानने वाले थे -- बीच का मार्ग; जो कि न तो कामभोग का मार्ग है और न काय-क्लेश का मार्ग है |
५. बुद्ध ने परिव्राजकों से प्रश्न किया -- मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि जब तक किसी के मन में पार्थिव व स्वर्गीय भोगों की कामना बनी रहेगी, तब तक क्या उसका समस्त काय-क्लेश्ष व्यर्थ नही होगा? उनका उत्तर था-“जैसा आप कहते है वैसा ही है |”
६. “यदि आप काय-क्लेश्ष द्वारा काम-तृष्णा को शान्त नहीं कर सकते तो काय-क्लेश का दरिद्री जीवन बिताने से आप अपने को कैसे जीत सकते हैं?”
७. “जब आप अपने आप पर विजय पा लेंगे तभी आप काम-तृष्णा से मुक्त होंगे, तब आप को काम-भोग की कामना न रहेंगी, और तब प्राकृतिक इच्छाओं की पूर्ति विकार पैदा नहीं करेगी | आप अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के हिसाब से खाना-पीना ग्रहण करें |
८. “सभी तरह की काम-वासना उत्तेजक होती है | कामुक अपनी काम वासना का गुलाम होता है | सभी काम-भोगों के चक्कर में पड़े रहना गँवारपन और नीच कर्म है | लेकिन मैं तुम्हे कहता हूँ कि शरीर की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति में बुराई नहीं है।
शरीर को स्वस्थ बनाये रखना एक कर्तव्य है | अन्यथा तुम अपने मनोबल को दृढ़ बनाये न रख सकोगे और प्रज्ञा रूपी प्रदीप भी प्रज्ज्वलित न रह सकेगा |”
(शेष अगले भाग में...............)
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